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मोदी ने जनता के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया है

रतनमणी डोभाल
मानों कारपोरेट मित्र मोदी सरकार ने किसानों के ही नहीं देश की जनता के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया हो। जब किसान काले कृषि कानूनों को वापस लेने की मांग को लेकर मोर्चा ले चुके हैं। अन्नदाताओं की मोर्चा बंदी के साथ देश भर में मजदूरों, कर्मचारियों, छात्र, युवा तथा महिलाओं सहित आम जनता एकजुटता की कार्रवाई करने उतरने लगी है।

इसके बाद भी प्रधानमंत्री मोदी ने कारपोरेट मित्रों को बड़ी बेशर्मी से मन की बात में जमाखोरी के लिए खोले द्वार बंद नहीं करने का भरोसा दिया है। किसान पूछ रहे हैं कि वह उनका भला किसके कहने पर कर रहे हैं। वे तो एमएसपी से कम दाम पर खरीद करने वाले जमाखोरों के खिलाफ कानून बनाने की मांग कर रहे थे। लेकिन मोदी ने खेती से किसानों की आजादी का काला कानून बना दिया है।

मोदी की मन की बात ने आग में घी डालने का काम किया है। किसानों अपना मोर्चा और सख्त करने का निर्णय लेना पड़ा है। सड़कों खोदकर मोदी सरकार बहुत दिनों तक किसानों को दिल्ली कूच से रोक नहीं पाएगी। फूट डालने के लिए शांतिपूर्ण आंदोलन को भिंडरावाले खालिस्तानियों का आंदोलन बताने से भी भाजपा ने परहेज नहीं किया है। इससे भारी ठंड के बावजूद किसानों का पारा चढ़ गया है।

सब जानते हैं कि खेती ऐसा बाजार है जिसमें कभी मंदी नहीं आती है क्योंकि सब जिंदा रहना चाहते हैं और जिंदा रहने के लिए खाना सबको चाहिए इसलिए उत्पादन की हर समय जरूरत है। खेती का कारपोरेटीकरण का यह पहला प्रयास नहीं है। पहले भी होता रहा है। लेकिन अब मोदी की कारपोरेट सरकार अपने बहुमत के दम पर लोकतांत्रिक विरोध की परवाह न कर किसानों से खेती-बाड़ी छिनने पर आमादा है।

काले कानून वापस नहीं लिए जाते हैं तो कारपोरेट किसानों की जमीनें खरीद लेंगे और किसानों को अपनी ही जमीन पर खेती मजदूर बनकर मजदूरी करनी पड़ेगी। यह कहा जा रहा है कि यह किसान की इच्छा है वह चाहे बेचे चाहे ना बेचे। बड़ी चतुराई से यह बात कही जा रही है। माना एक किसान अपनी दो बीघा जमीन नहीं बेचता है और उसके आसपास अगल बगल 100 बीघा में फार्मिंग खेती शुरू हो जाती है तो दो बीघा वाला कैसे खेती कर पाएगा?

और जब कारपोरेट की फार्मिंग खेती शुरू हो जाएगी तो मोदी ने उनको मनमाने ढंग से स्टाक भंडारण करने की आजादी का भी अधिकार दे दिया है। कारपोरेट ही उपज का दाम भी तय करेंगे। मोदी सरकार देश की खाद्यान्न सुरक्षा पर हमला कर गोदाम की चाबी निजी कारपोरेट मित्रों के हाथों में सौंप रही है।

किसान पहले ही उपज का लाभकारी दाम नहीं मिलने से परेशान हैं। वह खेती छोड़ शहरों में मजदूरी करने के लिए आ रहा है। ऐसे में बहुत से किसान कारपोरेट के जाल में फंसकर अपनी जमीन बेच देंगे। अगर ऐसा होने दिया जाता है तो वह दिन दूर नहीं जब देश की गरीब जनता अन्न के दाने के लिए मोहताज हो जाएगा और देश को अकाल जैसी समस्या का सामना करना पड़ेगा।

इसलिए खेती बचाने की लड़ाई किसान की ही नहीं है। यह देश को बचाने की लड़ाई है जिसमें किसानों से इतर भी लोग कुछ न कुछ योगदान करते दिखाई दे रहे हैं।

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