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रसातल में है बंगालियों के भरोसे गढ़वाल की चिकित्सा व्यवस्था, पहाड़ों के हर गॉंव, कस्बे में है बंगाली क्लीनिक

प्रभुपाल सिंह रावत
बंगालियों के भरोसे गढ़वाल की चिकित्सा व्यवस्था आज रसातल में पहुंच गई हैं। हर पहाड़ी बाजार में एक बंगाली क्लीनिक हैं जिसके संचालक को हम डॉ कहते हैं। कुछ वर्ष किसी केमिस्ट व क्लीनिक में काम करने के बाद पहाड़ों में डॉ बन जाना कोई नई बात नही हैं। बंगाली डॉ की दवा कितनी सही कितनी घातक हैं यह तो जानकार जाने किंतु हल्की फुल्की जरूरतों के लिए भी शहरों को जाना कुछ हद तक रुक गया हैं। मगर इस के परिणाम घातक हो रहे हैं।
उत्तराखण्ड के पहाड़ों के हर गॉंव, कस्बे में बंगाली क्लीनिक मिलेगा। छोटे नगरों में बंगाली क्लीनिक के बाहर डॉ की अनेकों डिग्रियां लिखी होती हैं जिन की जांच आज तक नही हुई। इसमें कुछ स्थानीय लोगों के क्लीनिक भी स्थापित हैं। लोगों के जीवन से खिलवाड़ करना रोजीरोटी बन गया हैं। इसकी वजह सरकारी चिकित्सकों की उदासीनता व चिकित्सालयों का विफल होना हैं। सरकारी डिस्पेंसरी वह उपचार नही दे सका जो मामूली झोलाछाप बंगाली दे रहा हैं। जनता को बेहतर उपचार चाहिए जिस के लिए बाबा बंगाली बैठा हैं। लाखों लगाने के बाद सरकारी चिकित्सालय की पूरे महीने में 10 ओपीडी पर्ची नही फ़टी और बाबा बंगाली हर वर्ष गाड़ी बंगला जो यहीं का वसिंदा बन गया। रही कसर उत्तरप्रदेश बिहार के डॉ पूरी कर रहे हैं। यदि ये लोग नही होते तो हर पहाड़ी चिकित्सा के नाम पर देहरादून, रामनगर, कोटद्वार, रुड़की में बस चुका होता। इसीलिए सायद अजय भट्ट बंगालियों को उत्तराखण्ड में 12 प्रतिशत आरक्षण की बात सदन में रख चुके हैं। उन्हें उत्तराखण्ड का भविष्य पता हैं। वे जानते हैं कुछ वर्ष बात हम मोच्छर भात के ही दीवाने होंगे।
किसी भी उपद्रह का पनपना किसी भी सामाजिक व्यक्ति का उदय होने का सीधा आर्टि मैनेजमेंट का विफल होना होता हैं। व्यवस्थाओं के अभाव में समाज भृमित होकर गलत रास्तों पर जाता हैं जिस का उदय हो चुका हैं। सरकारों ने मूलभूत सुविधाओं पर ध्यान केंद्रित नही किया। समाज की जरूरत को हांसिये पर रखा। जिसका नतीजा लोगों का जीवन संकट में। यदि ऐसा ही चलता रहा तो पृथक राज्य का औचित्य खत्म हो जाएगा। हम जहां से चले थे वहीं है और वहीं रहेंगे।

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