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सन्यासी तथा बैरागी अखाडों में धर्म ध्वजा अत्यंत महत्वपूर्ण: श्रीमहंत विद्यानंद सरस्वती

सुनील मिश्रा
हरिद्वार। सन्यासी तथा बैरागी अखाड़ों में धर्म ध्वजा अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। इसकी रक्षा के लिए सर्वस्व बलिदान कर देना एक सन्यासी का परम कर्तव्य होता है। धर्मध्वजा का एक निश्चित तथा पारम्परिक विधान है। उसी का पालन करते हुए इसकी विधिवत स्थापना की जाती है। जूना अखाड़े के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष व पूर्व प्रवक्ता श्रीमहंत विद्यानंद सरस्वती बताते है कि धर्म ध्वजा बावन हाथ ऊंची होती है, इसमें बावन बंध लगाये जाते है तथा इसे चार रस्सियों जिन्हे आम्नांयें कहते है के सहारे स्थिर किया जाता है। इन चारों आम्नाओं पर अखाड़े की चारों मढियों, 13 मढी, 4 मढ़ी, 14 मढी तथा 16 मढी के श्रीमहंत अपना शिविर स्थापित कर इसकी रक्षा के लिए नागा सन्यासी योद्वा तैनात कर देते है। उन्होने बताया मुगलशासन काल में नागा सन्यासियों की मुस्लिम आक्रान्ताओं, राजाओं से खुनी संधर्ष होते रहते थे, जिनमें विजय प्राप्त कर लेने के बाद नागा फौज धर्म ध्वजा स्थापित कर देते थे। जो उनकी विजय का प्रतीक होती थी। इन धर्म ध्वजाओं को कोई हानि न हो या इसके कोई ध्वस्त न कर दे इसलिए उसके चारों आम्नाओं या तनियों पर नागा सैनिक दिन रात तैनात रहते थे। श्रीमहंत विद्यानंद सरस्वती बताते है कि बावन हाथ ऊंची धर्मध्वाजा वास्तव में बावन मढियों, बावन शक्ति पीठ, बावन सिद्व पीठ की परिकल्पना है। इसका उददेश्य पूरे देश की सनातन धर्म शक्ति का सामूहिक सांगठिनक एकता प्रदर्शित करना है। उन्होने कहा आदि गुरू शंकराचार्य ने सनातन धर्म की रक्षा के लिए चारों दिशाओं में चार मढों ज्योतिषपीठ, शारदापीठ, गोर्वधन पीठ तथा द्वारिकापीठ की स्थापना कर चार शंकराचायर्य बनाए थे। इन चारों पीठ को चार आम्नाओं से जोड़ा गया। धर्म ध्वजा की चार रस्सियाॅ इन्ही आम्नाओं का प्रतीक है जो कि पूरब, पश्चिम, उत्तर तथा दक्षिण को एक सूत्र में बाॅधकर धर्म की रक्षा करती है। उन्होने कहा अब मुगलकालीन परिस्थितियाॅ नही है, लेकिन परम्परा कायम है। धर्म ध्वजा की स्थापना उसकी रक्षा तथा परम्परा को अब भी उसी भव्यता से निभाया जाता है। कुम्भ मेले का वास्तवित शुभारम्भ धर्मध्वजा स्थापित हो जाने के बाद ही होता है तथा समापन भी धर्मध्वजा उतारने जिसे तनी ढीली करना कहते है से होता है।

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