
मनोज सैनी
हरिद्वार। उत्तराखंड के वित्त एवं संसदीय कार्यमंत्री प्रेम चंद अग्रवाल द्वारा विधान सभा सत्र के दौरान दिए गए वक्तव्य के बाद से ही पर्वतीय समाज में भारी आक्रोश देखा गया है। भारी आक्रोश और पार्टी आलाकमान के दबाव के चलते आखिरकार मंत्री प्रेमचंद अग्रवाल ने भारी मन से अपना इस्तीफा आज मुख्यमंत्री धामी को सौंप दिया जिसके बाद उत्तराखंड की राजनीति और गरमा गई है। प्रेम चंद के इस्तीफे के बाद जहां पर्वतीय मूल के लोगों में खुशी का माहौल है, वहीं मैदानी लोगों में अब आक्रोश भी देखा जा रहा है। अब सवाल उठता है कि क्या आने वाले समय में उत्तराखंड में पहाड़- मैदान के नाम पर होने वाली राजनीति बढ़ती जाएगी या फिर इस पर विराम लगेगा?
वर्तमान हालात तो बता रहे हैं कि आने वाले समय में यदि धामी सरकार ने पहाड़-मैदान के नाम पर की जाने वाली राजनीति पर शिकंजा नहीं कसा तो पहाड़ – मैदान की खाई और बढ़ जायेगी, जिसका सीधा नुकसान उत्तराखंड प्रदेश को होगा। मंत्री प्रेमचंद अग्रवाल के इस्तीफे के बाद जहां पहाड़ी क्षेत्रों में पर्वतीय समाज के लोगों द्वारा खुशी का इजहार करते हुए आतिशबाजी करने की खबरें आ रही हैं, वहीं मंत्री के इस्तीफे के बाद मैदानी क्षेत्र के लोग भी एकजुट होते जा रहे है और मंत्री प्रेमचंद अग्रवाल के इस्तीफे को सरकार द्वारा अस्वीकार करने की बात कह रहे हैं। मंत्री प्रेमचंद अग्रवाल के आवास पर एकत्र हुए सर्व समाज मैदानी मंच के लोगों ने यह आह्वान भी किया है कि अगर इस्तीफा अस्वीकार नहीं किया गया तो कल राजधानी देहरादून को पूरी तरह से बंद कराया जाएगा और जगह-जगह प्रदर्शन और नारेबाजी की जाएगी। इतना ही नहीं कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष गणेश गोदियाल ने मुख्यमंत्री धामी और विधानसभा अध्यक्ष पर मंत्री प्रेम चंद को संरक्षण देने के आरोप लगाते हुए कहा कि यह मामला मात्र मंत्री प्रेमचंद अग्रवाल के इस्तीफे तक सीमित नहीं रहेगा। बल्कि जब तक मुख्यमंत्री धामी और विधानसभा अध्यक्ष ऋतु खंडूरी उत्तराखंड की जनता से माफी नहीं मांगते तब तक चलता रहेगा। कहने का मतलब आने वाले समय में राजनेता पहाड़ मैदान की खाई को और बढ़ाने का काम कर सकते है, जिसका सीधा असर उत्तराखंड की राजनीति पर पड़ने वाला है। पाठकों को बता दें कि 2004 के लोकसभा चुनाव से पूर्व जनपद हरिद्वार में पहाड़ – मैदान की खाई इतनी बड़ी हो गई थी कि पहाड़ – मैदान के मुद्दे पर हरिद्वार से सपा के राजेंद्र बाड़ी सांसद बन गए थे। अब यदि उत्तराखंड में फिर से पहाड़ मैदान की राजनीति को बढ़ावा मिलता है तो 2027 के विधानसभा चुनाव में बिल्कुल अलग नजारा देखने को मिल सकता है।
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