मनोज सैनी
2014 में जब से केंद्र में भाजपा की मोदी सरकार सत्ता में आई है तभी से केंद्र सरकार ने जितनी भी नीतियां, जिस भी क्षेत्र में बनाई हैं वह सिर्फ और सिर्फ पूंजीपतियों के लिए बनाई है। जो नीतियां बनाई है उनमें से कुछ तो सिरे चढ़ गई, मगर कुछ नीतियां विपक्ष के भारी विरोध और जनांदोलन के जरिए सिरे नहीं चढ़ पाई है। अभी 25 सितंबर को भारत सरकार के सूचना मंत्रालय के भारत के समाचार पत्रों के पंजीयक कार्यालय द्वारा एक नई गाइडलाइन जारी की गई है, जिसमें देश के हर समाचार पत्र को प्रकाशन के 48 घंटो के अंदर आरएनआई दिल्ली या पीआईबी के रीजनल ऑफिस में प्रतियां जमा करनी होगी। अखबार जमा न कर पाने की दशा में जुर्माने का भी प्रावधान रखा गया है साथ ही आपके समाचार पत्र का रजिस्ट्रेशन भी निरस्त किया जा सकता है। आरएनआई की नई गाइडलाइन को लेकर जहां लघु समाचार पत्रों को चलाने वाले लोगों में भारी आक्रोश है वहीं देश के पत्रकारों की विभिन्न संस्थाओं द्वारा विरोध स्वरूप विभाग को नई गाइडलाइन के विरोध में ज्ञापन भी भेजे जा रहे हैं। मगर 2014 के बाद का मोदी सरकार इतिहास उठाकर देखे तो एक आध अपवाद को छोड़कर मोदी सरकार जो भी ठान लेती है, उसे पूरा करने के लिए किसी भी हद तक चली जाती है। इसलिए संगठनों का विरोध कोई ज्यादा मायने नहीं रखता है। एक और बात मोदी सरकार तानाशाही की सत्ता की तरह नागरिकों की आज़ादी को छीनना चाहती है। लघु और मध्यम समाचार पत्र पॉकेट्स में जनमत का निर्माण करते हैं। जिस कारण मोदी सरकार इनसे डरी हुई है।
अमर उजाला हो या जागरण, टीओआई, हिंदुस्तान टाइल्स ज़ैसे बड़े अखबार पर तो मोदी सरकार का नियंत्रण है लेकिन सत्ता को प्रभावित करने वाले हजारों छोटे, मझोले, क्षेत्रीय और भाषाई समाचार पत्रों पर सरकार का ज़ोर नहीं है। देश की जनता और सियासत दानों ने खुद देखा है कि हवाला घोटाला, राम रहीम, आशाराम जैसे तमाम मामलों में छोटे समाचार पत्रों ने ही माहौल तैयार किया। सरकार चुनाव से पहले मध्यम, क्षेत्रीय और भाषाई मीडिया को धमका कर अपने पक्ष में करना चाहता है। नहीं तो निरस्तीकरण का ऑप्शन सरकार ने तैयार कर लिया है।
विभाग में बैठे अधिकारियों से जब नई गाइडलाइन के बारे में अनौपचारिक रूप से पूछा गया तो उन्होंने बताया की केंद्र की मोदी सरकार ने विभाग के अधिकारियों को मौखिक निर्देश दिए हैं कि देश में बस पूंजीपतियों के बड़े समाचार पत्र रहने चाहिए जिनकी तादाद लगभग 50 है। जैसा आपको ऊपर बताया गया है की मोदी सरकार की 2014 से जो नीतियां रही हैं वे आम आदमी ले लिए नहीं, बल्कि पूंजीपतियों के लिए ही बनी है। उन्हे लघु शब्द से सख्त नफरत है। इसलिए देश से पहले लघु उद्योगों को समाप्त किया, छोटे दुकानदारों को जीएसटी के माध्यम से बेकार कर दिया। देश में निजीकरण को बढ़ावा देते हुए रोजगार, नौकरी समाप्त कर दी और अब लघु समाचार पत्रों की बारी है, जिन्हे बंद करने की साजिश रची जा रही है, जिससे लाखों लोग बेरोजगार हो जायेंगे।
आपको बता दें कि भारत में 550 से ज्यादा ज़िले हैं जिसमे पीआईबी के सिर्फ 29 स्थानों पर ही ऑफिस हैं। उनमें भी कुछ प्रदेशों में कर्मचारियों के नाम पर न्यूनतम 1 और अधिकतम स्टाफ 3 है। हर जिले में राज्य सरकार के सूचना कार्यालय स्थापित हैं, जहां रेगुलर रूप से सभी अखबार जमा होते हैं लेकिन नए एक्ट ने इन कार्यालयों का वजूद समाप्त कर दिया। पहले किसी भी अखबार को अपने ज़िले के डीएम या डीसी के समक्ष एक घोषणा पत्र दाखिल करना होता था। ये अधिकार भी अब केंद्र सरकार ने अपने पास ले लिया। अब 550 ज़िले कैसे अपने अखबार की प्रतियां आरएनआई के 29 रीजनल ऑफिस में जमा करवाएंगे।
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